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करेगा जाप, सो नर भूलेगा धर्म औ बढ़ावेगा पाप। जिसने संसार में आय तुम्हारा नाम न लिया तिसने अमृत छोड़ विष पिया। जिसके हृदै मे तुम बसे जाय उसीको भक्तिमुक्ति मिली गुन गाय।

इतना कह पुनि श्रीमहादेवजी बोले कि हे कृपासिंधु, दीनबंधु, तुम्हारी महिमा अपरंपार है किसे इतनी समर्थ है जो उसे बखाने औ तुम्हारे चरित्रो को जाने। अब मुझपर कृपा कर इस बानासुर का अपराध क्षमा कीजे औ इसे अपनी भक्ति दीजे। यह भी तुम्हारी भक्ति का अधिकारी है क्यौंकि भक्त पहलाद का बंस है। श्रीकृष्णचंद बोले कि शिवजी, हम तुम में कुछ भेद नहीं औं जो भेद समझेगा सो महा नर्क में पड़ेगा औ मुझे कभी न पावेगा। जिसने तुम्हे ध्याया, जिसने अंत समैं मुझे पाया। इसने निसकपट तुम्हारा नाम लिया, तिसी से मैंने इसे चतुभुर्ज किया। जिसे तुमने बर दिया औ दोगे, तिसका निबाह मैंने किया और करूँँगा।

महाराज, इतना बचन प्रभु के मुख से निकलते ही, सदाशिवजी दंडवत कर बिदा हो अपनी सेना ले कैलास को गये औ श्रीकृष्णचंद वहीं ही खड़े रहे। तब बानासुर हाथ जोड़ सिर नाय बिनती कर बोला, कि दीनानाथ, जैसे आपने कृपा कर मुझे तारा तैसे अब चलके दास का घर पवित्र कीजे औ अनरुद्धजी औ ऊषा को अपने साथ लीजे। इस बात के सुनतेही श्रीबिहारी भक्त हितकारी प्रद्युम्नजी को साथ ले बानासुर के धाम पधारे। महाराज, उसे काल बानासुर अति प्रसन्न हो प्रभु को बड़ी आवभगत से पाटंबर, के पांवड़े डालता लिवाय ले गया। आगे―

चरन धोय चरनोदक लियौ। आचमन कर माथे पर दियौ॥