पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३१५)

पुनि कहने लगा कि जो चरनोदक सबको दुर्लभ है सो मैंने हरि की कृपा से पाया औ जन्म जन्म का पाप गँवाया। यही चरनोदक त्रिभुवन को पवित्र करता है, इसका नाम गंगा है। इसे ब्रह्मा ने कमंडल में भरा, शिवजी ने शीश पर धरा। पुनि सुर मुनि ऋषि ने माना औ भागीरथ ने तीनो देवताओं को तपस्या कर संसार में आना तबसे इसका नाम भागीरथी हुआ। यह पाप मलहरनी, पवित्रकरनी, साध संत को सुखदेनी, बैकुंठ की निसेनी है। औ जो इसमें न्हाया, उसने जन्म जन्म का पाप गँवाया। जिसने गंगा जल पिया, जिसने निःसंदेह परम पद लिया। जिनने भागीरथी का दर्शन किया, तिनने सारे संसार को जीत लिया। महाराज इतना कह बानासुर अनिरुद्धजी औ ऊषा को ले आय, प्रभु के सनमुख हाथ जोड़ बोला―

क्षमिये दोष भावइ भई। यह मैं ऊषा दासी दई॥

यों कह वेद की विधि मे बानासुर ने कन्यादान किया औ तिसके यौतुक मे बहुत कुछ दिया, कि जिसका वारापार नहीं।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, ब्याह के होते ही श्रीकृष्णचंद बानासुर को आसा भरोसा दे, राजगद्दी पर बैठाय, पोते बहू को साथ ले, बिदा हो धौंसा बजाय, सब जदुबसियो समेत वहॉ से द्वारका पुरी को पधारे। इनके आने के समाचार पाय सब द्वारकाबासी नगर के बाहर जाय प्रभु को बाजे गाजे से लिवाये लाये। उस काल पुरबासीहाट, बाट, चौहट्टो चौबारों, कोठों से मंगली गीत गाय गाय मंगलाचार करते थे औ राजमन्दिर में श्रीरुक्मिनी आदि सब सुंदरि बधाए गाय गाय रीति भॉति करती थीं औ देवता अपने अपने बिमानों पर बैठे अधर से