पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३१८)


ह्माँ से मिली है, भाई तू क्यो इसे लिये जाता है। यह ब्राह्मन बोला―इसे तो मै अभी राजा के ह्यॉ से लिये चला आता हूँ तेरी कहॉ से हुई। महाराज, वे दोनो ब्राह्मण इसी भाँति मेरी मेरी कर झगड़ने लगे। निदान झगड़ते झगड़ते वे दोनो राजा के पास गये। राजा ने दोनों की बात सुन हाथ जोड़ अति बिनती कर कहा कि―

कोऊ लाख रूपैया लेउ। गैया एक काहू कौं देउ॥

इतनी बात के सुनतेही दोनो झगड़ालू ब्राह्मन अति क्रोध कर बोले कि महाराज, जो गाय हमने स्वस्ति बोल के ली सो कड़ोड़ रुपये पाने से भी हम न देंगे, वह तो हमारे प्रान के साथ है। महाराज, पुनि राजा ने उन ब्राह्मनो को पाओ पड़ पड़ अनेक अनेक भॉति फुसलाया, समझाया, पर उन तामसी ब्राह्मनों ने राजा का कहना न माना। निदान महा क्रोध कर इतना कह दोनो ब्राह्मन गाय छोड़ चले गये कि महाराज, जो गाय आपने संकल्प कर हमें दी औ हमने स्वस्ति बोल हाथ पसार ली, वह गाय रुपये ले नहीं दी जाती, अच्छी यो तुम्हारे यहाँ रही तो कुछ चिंता नहीं।

महाराज, ब्राह्मनो को जाते ही राजा नृग पहले तो अति उदास हो मन ही मन कहने लगी कि यह अधर्म अनजाने मुझसे हुआ सो कैसे छुटेगा औ पीछे अति दान पुन्य करने लगी। कितने एक दिन बीते राजा नृग कालबस हो मर गया, उसे यम के रान धर्मराज के पास ले गये। धर्मराज राजा को देखते ही सिंहासन से उठ खड़ा हुआ, पुनि आवभगत कर आसन पर बैठाय अति हित कर बोला–महाराज, तुन्हारा पुन्य है बहुत औ पाप है। थोड़ा; कहो पहले क्या भुगतोगे।