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बैकुंठ को गया औ श्रीकृष्णचंदजी सब बाल गुपालों को समझाय के कहने लगे―

बिप्र दोष जिन कोऊ करौ। मत कोउ अंंस बिप्र को हरौ॥
मन संकल्प कियो जिन राखौ। सत्य वचन बिप्रन सों भाखौ॥
बिप्रहि दियौ फेर जो लेइ। ताकौ दंड इतौ जम देइ॥
बिप्रन के सेवक भए रहियौ। सब अपराध बिप्र कौ सहियौ॥
बिप्रहि माने सो मोहि माने। बिप्रन अरु मोहि भिन्न न जाने॥

जो मुझ में औ ब्राह्मन में भेद जानेगा सो नर्क में पड़ेगा औ विप्र को मानेगी वह मुझे पावेगा औ निसंदेह परमधाम मे जावेगा।

महाराज, यह बात कह श्रीकृष्णजी सब को वहॉ से ले द्वारका पुरी पधारे।