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की नाव पर चढ़ाय बिरह समुद्र माँझ छोड़ गए। अब सुनती हैं कि द्वारका में जाय प्रभु ने बहुत ब्याह किये और सोलह सहस्र एक सौ राजकन्या जो भौमासुर ने घेर रक्खी थीं, तिन्हें भी श्रीकृष्ण ने लाय ब्याहा। अब उनसे बेटे पोते नाती भये, उन्हें छोड़ ह्य क्यौं आवेगे। यह बात सुन एक और गोपी बोली की साखी! तुम हरि की बातो का कुछ पछतावा ही मत करो, क्यौंकि उनके तो गुन सब ऊधोजी ने आय ही सुनाए थे। इतना कह पुनि वह बोली कि आली, मेरी बात मानौ तो अब

हलधरजु के परसौ पाय। रहिहैं इन्हींके गुन गाय॥
ये हैं गौर स्याम नहि गात। करिहैं नाहि कपट की बात॥
सुनि संकर्षन उत्तर दियौ। तिहरे हेतु गवन हम कियौ॥
आवन हम तुमसो कहि गये। ताते कृष्ण पठै ब्रज दये॥
रहि द्वै मास करेंगे रास। पुजवेंगे सब तुम्हरी आस॥

महाराज, बलरामजी ने इतना कह सब ब्रज युवतियो को आज्ञा दी कि आज मधुमास की रात है तुम सिंगार कर बन में आओ, हम तुम्हारे साथ रास करेगे। यह कह बलरामजी साँझ समै बन को सिधारे, तिनके पीछे सब ब्रजयुवती भी सुथरे वस्त्र आभूषन पहन, नख सिख से सिगार कर बलदेवजी के पास पहुँची।

ठाड़ी भई सबै सिर नाय। हलधर छबि बरनी नहिं जाय॥
कनक बरन नीलाँबर धरें। ससिमुख कँवलनयन मन हरें॥
कुंडल एक श्रवन छबि छाजै। मनौ भनि ससि संग विराजै॥
एक श्रवन हरिजन रस पान। दूजौ कुंडल धरत न कान॥
अंग अंग प्रति भूषद घने। तिनकी शोभा कहत न बने॥