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यो कहि पॉय परी सुंदरी। लीला रास करहु रस भरी॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही बलरामजी ने हूँ किया। हूँ के करते ही रास की सब बस्तु आय उपस्थित हुई। तब तो सब गोपियॉ सोच संकोच तज, अनुराग कर बीन, मृदंग, करताल, उपंग, मुरली आदि सब यंत्र ले ले लगीं बजाने गाने औ थेइ थेई कर नाच नाच भाव बताय बतात प्रभु को रिझाने। उनका बजाना गाना नाचना सुन देख मगन हो बारुनी पान कर बलदेवजी भी सब के साथ मिल गाने नाचने औ अनेक अनेक भॉति के कुतूहल कर कर सुख देने लेने लगे। उस काल देवता, गंधर्व, किन्नर, यक्ष अपनी अपनी स्त्रियो समेत आय आय, विमान पर बैठे प्रभु गुन गाय गाय अधर से फूल बरसाते थे। चंद्रमा तारामंडल समेत रासमंडली का सुख देख देख किरनो से अमृत बरसाता था औ पवन पानी भी थँभ रहा था।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इसी भांति बलरामजी ने व्रज में रह चैत्र बैसाख दो महीने रात्र को तो ब्रज युवतियो के साथ रास विलास किया औ दिन को हरिकथा सुनाय नंद जसोदा को सुख दिया। विसीमे एक दिन रात समै रास करते करते बलरामजी ने जा―

नदी तीर करके विश्राम। बोले तहाँ कोप के राम।।
यमुना तू इतही नहि आव। सहस्र धार कर मोहि न्हवाव॥
जो ने मानिहै कह्यो हमारौ। खंड खंड जल होय तिहारौ॥

महाराज, जब बलरामजी की बात अभिमान कर यमुना ने सुनी अनसुनी की, तब तो इन्होने क्रोध कर उसे हल से खेच ली औ स्नान किया। उसी दिन से वहॉ यमुना अब तक टेढ़ी है।

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