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सँड़सठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, काशीपुरी में एक पौड्रक नाम राजा, सो महाबली औ बड़ा प्रतापी था। तिसने विष्णु को भेष किया औ छल बल कर सब का मन हर लिया। सदा पीत बसन, बैजंतीमाल, मुक्तमाल, मनिमाल पहने रहे और संख, चक्र गदा, पद्म लिए, दो हाथ काठ के किये, एक घोड़े पर काठही को गरुड़ धरे उसपर चढ़ा फिरै। वह बासुदेव पौड्रक कहावे औ सब से आपको पुजावे। जो राजा उसकी आज्ञा न माने उसपर चढ़ जाय फिर मार धाड़ कर विसे अपने बस में रक्खै।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, विसका यह आचरन देख सुन देस देस, नगर नगर, गॉव गॉव, घर घर मे लोग चर्चा करने लगे कि एक वासुदेव तो ब्रजभूमि के बीच युद्धकाल में प्रकट हुए थे सो द्वारका पुरी मे बिराजते है, दूसरा अब काशी में हुआ है, दोनो मे हम किसे सच्चा जाने औ मान । महाराज, देश देश मे वह चरचा हो रही थी कि कुछ संधान पाय, बासुदेव पौड्क एक दिन अपनी सभा में आय बोला―

 को है कृष्ण द्वारका रहै। ताकौ बासुदेव जग कहै॥
भक्त हेतु भू हौ औतन्यौ। मेरौ भेष तहॉ तिन धन्यौ॥

इतनी बात कह एक दूत को बुलाय, उसने ऊँच नीच की बातें सब समझाय बुझाय, इतना कह द्वारका में श्रीकृष्णचद जी के पास भेज दिया कि कै तो मेरा भेष बनाए फिरता है सो छोड़ दे, नही तो लड़ने का विचार कर। आज्ञा पाते ही दूत विदा हो