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काशी से चला चला द्वारकापुरी में पहुँचा औ श्रीकृष्णचंदजी की सभा मे जा उपस्थित हुआ। प्रभु ने इससे पूछा कि तू कौन है और कहॉ से आया है? बोला—मैं काशीपुरी के बासुदेव पौड्रक का दूत हूँ, स्वामी का कुछ संदेसा कहने आपके पास आया हूँ। कहो तो कहूँ। श्रीकृष्णचंद बोले―अच्छा कह। प्रभु के मुख से यह बचन निकलते ही दूत खड़ा हो हाथ जोड़ कहने लगा कि महाराज, बासुदेव पौड्रक ने कहा है कि त्रिभुवनपति जगत का करता तो मै हूँ, तू कौन है जो मेरा भेष बनाय जरासंध के डर से भाग द्वारका में जाय रहा है। कै तो मेरा बानी छोड़ शीघ्र आय मेरी शरण गह नही तो तेरे सब जदुबंसियी समेत तुझे आय मारूंगा औ भूमि का भार उतार अपने भक्तों को पालूंगा। मै ही हूँ, अलख अगोचर निरंकारश्च*। मेरा ही जप, तप, यज्ञ, दान करते हैं सुर, मनि, ऋषि, नर बार बार। मै ही ब्रह्मा हो बनाता हूँ, विष्णु हो पालता हूँ, शिव हो संहारता हूँ। मैने ही मच्छ रूप हो बेद डूबते निकाले, कच्छ स्वरूप हो गिरधारन किया, बाराह बन भूमि को रख लिया नृसिंह अवतार ले हिरनकस्यप को बध किया, बावन अवतार ले बलि को छला, रामावतार ले महादुष्ट रावन को मारा। मेरा यही काम है कि जब जब असुर मेरे भक्तों को अयि सताते हैं तब तब, मैं अवतार ले भूमि को भार उतारता हूँ।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, वासुदेव पौड्रक का दूत तो इस ढब की बाते करता था


*(ख) में 'निराकार' है।