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देवीचंद

इन्होंने हितोपदेश का ब्रज भाषा में उल्था किया। वि॰ सं॰ १७९७ की लिखी प्रति प्राप्त है।
उदा॰—

‘आवरदा, करम, द्रव्य, विद्या, मरण ए पांचो वस्तु बिधाता गर्भ ही माहि देही कूं सरजे है। जाते भावि जू लिख्यो सो अवश्य होइ जैसे नीलकंठ महादेवजी भावि कै वस्य होय साक्षात् नगन बन में रहतु है।

अज्ञात

कृष्णजी की लीला नामक पुस्तक की हस्तलिखित प्रति सं॰ १७९७ वि॰ की प्राप्त हुई है जिसके ग्रंथकर्ता का कुछ पता नहीं हैं। यह ब्रज भाषा में गद्य रचना है।

‘श्रीराधाजी अपनी सपियन मै आई अर अपनी अपनी मटकियां सिर पर धरि अर सब सषियन सहित घर कूं चली। तब पैंडा बीच मुषरा मिली। तब भुषरा सब सहेली समेत श्रीराधाजी के बॉह गहिके पर कूं ले चली। इहाँ आनि अब नीको भोजन करायौ।’

भगवानदास

यह श्रीस्वामी कुबाजी के पौत्र और शिष्य स्वामी दामोदरदास के शिष्य भयंकराचार्य के शिष्य थे। इनका जन्म लगभग सं॰ १७२५ वि॰ के हुआ था। इन्होने सं॰ १७५६ वि॰ में श्रीमद्भगवद्गीता पर भाषामृत नामक गद्य टीका लिखी है जो रामानुजाचार्य के भाष्यानुसार है।