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अड़सठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जैसे बलराम सुखधाम रूप निधान ने दुबिद कपि को मारा, तैसे ही मै कथा कहता हूँ, तुर चित दै सुनौ। एक दिन दुबिद, जो सुग्रीव का मंत्री औ मयंद्री कपि को भाई औ भौमासुर का सखा था, कहने लगा कि एक सूल मेरे मन में है सो जब न तब खटकता है। यह बात सुन किसीने उससे पूछा कि महाराज, सो क्या? बोला―जिसने मेरे मित्र भौमासुर को मारा तिसे मारूँँ तो मेरे मन का दुख जाय।

महाराज, इतना कह वह विसी समै अति क्रोध कर द्वारका पुरी को चला, श्रीकृष्णचंद के देस उजाड़ता, औ लोगो को दुख देता। किसीको पानी बरसाय बहाया, किसी को आग बरसाय जलाया। किसीको पहाड़ से पटका। किसी पर पहाड़ दे पदका। किसीको समुद्र मे डुबाया किसीको पकड़ बॉध गुफा में छिपाया। किसीका पेट फाड़ डाला, किसीपर वृक्ष उखाड़ मारा। इसी रीति से लोगो को सताता जाता था और जहॉ मुनि, ऋषि, देवताओं को बैठे पाता था, तहॉ गू, मूत, रुधिर बरसाता था। निदान इसी भॉति लोगो को दुख देता औ उपाध करता जी द्वारका पुरी पहुँचा औ अल्प तन धर श्रीकृष्णचंद के मंदिर पर जा बैठा। उसको देख सब सुंदरि मंदिर के भीतर किवाड़ दे दे भागकर जाय छिपीं। तब तो वह मनही मन यह बिचार बलरामजी के समाचार पाय रैवतगिर पर गया कि―


*(ख) मे 'मैद' लिखा है।