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गर्व भयौ कौरव कौ भारी। लाज सकुच नहिं करी तिहारी॥
बालक कौ बाँध्यौ उन ऐसे। शत्रु को बॉधे कोउ जैसे॥

इस बात के सुनतेही राजा उग्रसेन ने अति कोप कर जदुबंसियों को बुलायके कहा—तुम अभी सब हमारा कटक ले हस्तिनापुर पर चढ़ जाओ औ कौरवो को भार संबू को छुड़ाय ले आओ। राजा की आज्ञा पातेही जो सब दल चलने को उपस्थित हुआ तों बलरामजी ने जाय राजा उग्रसेन से समझायकर कहा कि महाराज, आप उनपर सेना न पठाइये, मुझे आज्ञा कीजै जो मैं जाय उन्हे उलहना दे संबू को छुड़ाय लाऊँ। देखू विन्होने किस लिये संबू को पकड़ बॉधा। इस बात का भेद विन मेरे गये ने खुलेगा।

इतनी बात के कहतेही राजा उग्रसेन ने बलरामजी को हस्तिनापुर जाने की आज्ञा दी औ बलदेवजी कितने एक बड़े बड़े पंडित ब्राह्मन औ नारद मुनि को साथ ले द्वारका से चले चले हस्तिनापुर पहुँचे। उस समय प्रभु ने नगर के बाहर एक बाड़ी में डेरा कर नारदजी से कहा कि महाराज, हम ह्याँ उतरे है आप जाय कौरवों से हमारे आने के समाचार कहिये। प्रभु की आज्ञा पाय नारदजी ने नगर मे जाय बलरालजी के आने के समाचार सुनाए।

सुनकै सावधान सब भए। आगे होय लेन तहँ गए॥
भीषम कर्न द्रोन मिल चले। लीने चसन पटंबर भले॥
दुर्योधन यो कहिकै धायौ। मेरौ गुरु संकर्षन आयौ॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजासे कहा कि महाराज, सब कौरवो ने उस बाड़ी में जाय बलरामजी से भेट कर भेट दी औ पाओ पड़ हाथ जोड़ बहुत सी स्तुति की। आगे चोआ चंदन