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आदि सब कौरव गर्व कर उठ उठ अपने घर गए औ बलरामजी उनकी बाते सुन सुन, हँसि हँसि वहॉ बैठे मनही मन यों कहते रहे कि इनको राज औ बल का गर्ब भया है जो ऐसी ऐसी बातें करते है। नहीं तो ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र को ईस, जिसे नवावै सीस, तिस उग्रसेन की ये निन्दा करै। तौ मेरा नाम बलदेव जो सत्र कौरवों को नगर समेत गंगा में डबोऊँ नही तो नही।

महाराज, इतना कह बलदेवजी अति क्रोध कर सब कौरवो को नगर समेत हल से खैच गंगा तीर पर ले गए औ चाहैं कि डबोवै, तोही अति घबराय भय खाय सब कौरव आय, हाथ जोड़ सिर नाय गिड़गिड़ाय बिनती कर बोले कि महाराज, हमारा अपराध क्षमा कीजे, हम आपकी सरन आए, अब वचाय लीजे। जो कहोगे सो करेगे, सदा राजा उग्रसेन की आज्ञा में रहेंगे। राजा, इतनी बात के कहते ही बलरामजी का क्रोध शांत हुआ औ जो हुल से खैच नगर गंगा तीर पर लाए थे सो वही रक्खा। तिसी दिन से हस्तिनापुर गंगा तीर पर है, पहले वहॉ न था। आगे उन्होने संबू को छोड़ दिया औ राजा दुर्योधन ने चचा भतीजो को मनाय, घर में ले जाय मंगलाचार करवाय, वेद की विध से संबू को कन्यादान दिया औ उसके यौतुक में बहुत कुछ संकल्प किया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने कहा कि महाराज, ऐसे बलरामजी हस्तिनापुर जाय, कौरवो का गर्व गँवाय, भतीजे को छुड़ाय ब्याह लाए। उस काल सारी द्वारका पुरी में आनंद हो गया औ बलदेवजी ने हस्तिनापुर का सब समाचार ब्यौरे समेत समझाय राजा उग्रसेन के पास जाय कहा।

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