पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक समय नारदजी के मन में आई कि श्रीकृष्णचंद सोलह सहस्र एक सौ आठ स्त्री ले, कैसे गृहस्थाश्रम करते हैं, सो चलकर देखा चाहिए। इनता विचार चले चले द्वारका पुरी में आए तो नगर के बाहर क्या देखते है कि बाड़ियो में नाना भॉति के बड़े बड़े ऊँचे ऊँचे वृक्ष हरे फल फूलो से भरे खरे झूम रहे है। तिनपर कपोत, कीर, चातक, मोर आदि पक्षी मनभावन बोलियॉ बैठ बोल रहे है। कहीं सुंदर सरोबरों में कँवल खिले हुए, तिनपर भौरो के झुंड गूँँज रहे, तीर में हंस, सारस समेत खग कुलाहल कर रहे हैं। कहीं फुलवाड़ियो में माली मीठे सुरो से गाय गाय, ऊँचे नीचे नीर चढ़ाय क्यारियों मे जल खैंच रहे हैं। कही इंदारे बावड़िर्यो पर रहट परोहे चल रहें है और पनघट पर पनहारियों के ठट्ट के ठट्ट लगे हैं, तिनकी शोभा कुछ बरनी नही जाती वह देखेही बन आवे।

महाराज, यह शोभा बन उपवन की निरख हरष नारदजी पुरी में जाय देखैं तो अति सुंदर कंचन के मनिमय मंदिर जगसगाय रहे हैं तिनपर ध्वजा पताका फहराय रही है, बार बार में तोरन बंदनवार बँधी है, द्वार द्वार पर केले के खंभ औ कंचन के कुंभ सपल्लव भरे धरे हैं, घर घर की जाली झरोखो से धूप का धुंआ निकल स्याम घटा सा मँडलाय रहा है, उसके बीच बीच सोने के कलस कलसियॉ बिजली सी चमक रही है, घर घर पूजा पाठ होम यज्ञ दान हो रहा है, ठौर ठौर भजन सुमिरन