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गान कथा पुरान की चरचा चल रही है, जहाँ सहॉ जदुबंसी इंद्र की सी सभा किये बैठे हैं औ सारे नगर में सुख छाये रहा है।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, नारदजी पुरी मे जाते ही मगन हो कहने लगे कि प्रथम किस मंदिर में जाऊँ जो श्रीकृष्णचंद को पाऊँ। महाराज, मनही भन इतना कह नारदजी पहले श्रीरुक्मिनीजी के मंदिर में गये, वहाँ श्रीकृष्णचंद विराजते थे सो इन्हे देख उठ खड़े भये। रुक्मिनीजी जल की झारी भर लाई। प्रभु ने पाँव धोय आसन पर बैठाय, धूप दीप नैवेद्य धर पूजा कर हाथ जोड़ नारदजी से कहा―

जा घर चरन साध के परैं। ते नर सुख संपत अनुसरैं॥
हमसे कुटमी तारन हेतु। घरहि आय तुम दरसन देते॥

महाराज, प्रभु के मुख से इतना वचन निकलते ही यह असीस दे नारदजी जामवंती के मंदिर में गये, कि जगदीस, तुम चिर थिर रहो श्रीरुक्मिनीजी के सीस, तो देखा कि हरि सारपासे खेल रहे हैं। नारदजी को देखतेही जों प्रभु उठे तों नारदजी आशीर्वाद दे उलटे फिरे। पुनि सतिभामा के यहॉ गये तो देखा कि श्रीकृष्णचंद बैठे तेल उबटन लगवाय रहे हैं। वहॉ से चुपचाप नारदजी फिर आये, इसलिये कि शास्त्र में लिखा है कि तेल लगाने के समैं न राजा प्रनाम करै न ब्राह्मन असीस। आगे नारद जी कालिंदी के घर गए, वहॉ देखा कि हरि सो रहे है, महाराज, कालिन्दी ने नारदजी को देखते ही हरि को पॉव दाब जगाया। प्रभु जागते ही ऋषि के निकट जाय दंडवत कर हाथ जोड़ बोले कि साधु के चरन तीरथ के जल समान हैं, जहाँ पड़े तहाँ पवित्र करते हैं। यह सुन वहॉ से भी असीस दे नारदजी चल खड़े हुए औ मित्र―

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