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बिन्दा के धाम गये। वहॉ देखे कि ब्रह्मभोज हो रहा है औ श्रीकृष्णजी परोसते हैं। नारदजी को प्रभु ने कहा कि महाराज, जो कृपा कर आये हो तो आप भी प्रसाद ले हमे उछिष्ट दीजै औ घर पवित्र कीजै। नारदजी ने कहा―महाराज, मैं थोड़ा फिर आऊँ, फिर आऊँगा, ब्राह्मनो को जिमा लीजै पुनि ब्रह्मशेष आय मै पाऊँगा। यो सुनाय नारदजी बिदा हो सत्या के ग्रेह पधारे, वहॉ क्या देखते है कि श्रीबिहारी भक्तहितकारी आनंद से बैठे बिहार कर रहे हैं। यह चरित्र देख नारदजी उलटे पॉवो फिरे। पुनि भद्रा के स्थान पर गये तो देखा कि हरि भोजन कर रहे हैं। वहाँ से फिरे तो लक्ष्मना के घर पधारे, तो तहॉ देखा कि प्रमु स्नान कर रहे है। इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने कहा कि महाराज, इसी भॉति नारद मुनिजी सोलह सहस्र एक सौ आठ घर फिरे, पर बिन श्रीकृष्ण कोई घर ने देखा। जहॉ देखा तहॉ हरि को गृहस्थाश्रम का काज ही करते देखा, यह चरित्र लख―

नारद के मन अचरज एह। कृष्ण बिना नहिं कोऊ गेह॥
जा घर जाउँ तहॉ हरि प्यारी। ऐसी प्रभु लीला बिस्तारी॥
सोलह सहस अठोतर सौ घर। तहॉ तहॉ सुंदरि संग गिरधर॥
मगन होय ऋषि कहत विचारी। योगमाया यदुनाथ तिहारी॥
काहू सो नहि जानी परै। कौन तिहारी माया तरै॥

महाराज, जब नारदजी ने अचंभा कर कहे ये बैन, तब ओले प्रभु श्रीकृष्णचंद सुखदेन कि नारद, तू अपने मन में कुछ संदेह मत करै, मेरी माया अति प्रबल है औ सारे संसार में फैल रही है, यह मुझे ही मोहती है तो दूसरे की क्या सामर्थ जो इसके इथि से बचे औ जगत के बीच आये इसमें न रचे।