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इकहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीकृष्णचंद रात्र समै श्रीरुक्मिनीजी के साथ बिहार करते थे औ श्रीरुक्मिनीजी आनंद मे मगन बैठीं प्रीतम का चंदमुख निरख अपने नयन चकोरों को सुख देती थीं, कि इस बीच रात बितीत भई। चिड़ियॉ चुहचुहाई, अंबर में अरुनाई छाई, चकोर को बियोग हुआ औ चकवा चकवियो को संयोग। कँवल बिकसे, कमोदनी कुम्हलाई, चंद्रमा छबिछीन भया औ सुरज का तेज बढ़ा। सब लोग जागे औ अपना गृहकाज करन लागे।

उस काल रुक्मिनीजी तो हरि के समीप से उठ सोच संकोच लिए, घर की टहल टकोर करने लगीं औ श्रीकृष्णचंदजी देह शुद्ध कर हाथ मुँँह धोय, स्नान कर जप ध्यान पूजा तर्पन से निचिंत होय, ब्राह्मनो को नाना प्रकार के दान दे, नित्य कर्म से सुचित हो, बालभोग पाय, पान, लौग, इलायची, जायपत्री; जायफल के साथ खाय, सुथरे वस्त्र आभूषन मॅगाय पहन, शस्त्र लगाय राजा उग्रसेन के पास गये। पुनि जुहार कर जदुबंसियो की सभा के बीच आय रत्नसिंहासन पर विराजे।

महाराज, उसी समैं एक ब्राह्मन ने जाय द्वारपालो से कहा कि तुम श्रीकृष्णचंदजी से जाकर कहो कि एक ब्राह्मन आपके दरसन की अभिलाषा किये पौर पर खड़ा है, जो प्रभु की आज्ञा पावे तो भीतर आवे। ब्राह्मन की बात सुन द्वारपाल ने भगवान से जो कहा कि महाराज, एक ब्राह्मन आपके दुरसन की अभिलाषा