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तिहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीकृष्णचंद कुरुनासिन्धु दीनबंधु भक्तहितकारी ऋषि ब्राह्मन क्षत्रियो की सभा में बैठे थे, कि राजा युधिष्ठिर ने आय अति गिड़गिड़ाय बिनती कर हाथ जोड़ सिर नायके कहा कि हे शिव विरंचि के ईस, तुम्हारा ध्यान करते हैं सदा सुर मुनि ऋषि जोगीस। तुम हो अलख अगोचर अभेद, कोई नहीं जानता तुम्हारा भेद।

 मुनि जोगीश्वर इकचित धावत। तिनके मन छिन कभू न आवत॥
हमकौं घरहीं दरसन देतु। मानत प्रेम भक्त के हेतु॥
जैसी मोहन लीला करौ। काहू पै नहि जाने परौ॥
माया मे भुलयौ संसार। हमसो करते लोक व्यौहार॥
जे तुमकौं सुमिरत जगदीस। ताहि आपनौ जानत ईस॥
अभिमानी ते हौ तुम दूर। सतबादी के जीवन-मूर॥

महाराज, इतना कह पुनि राजा युधिष्ठिर बोले कि हे दोनदुयाल, आपकी दया से मेरे सब काम सिद्ध हुए पर एकही अभिलाषा रही। प्रभु बोले―सो क्या? राजा ने कहा कि महाराज, मेरा यही मनोरथ है कि राजसूय यज्ञ कर आपको अर्पन करूँँ, तो भवसागर तरूँँ। इतनी बात के सुनतेही श्रीकृष्णचंद प्रसन्न हो बोले कि राजा यह तुमने भला मनोरथ किया इसमें सुर नर मुनि ऋषि सब सन्तुष्ट होगे। यह सबको भाता है और इसका करना तुम्हें कुछ कठिन नहीं, क्यौंकि तुम्हारे चारों भाई अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव बड़े प्रतापी औ अति बली हैं, संसार में ऐसा अब कोई नहीं जो इनका साम्हना करै। पहले इन्हें भेजिये कि ये