पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४०१

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महाराज, किसी समैं राजा हरिचंद बड़ा दानी हो गया है कि जिसकी कीर्ति ससार में अब तक छाय रही है। सुनिये, एक समय राजा हरिश्चंद के देस में काल पड़ा औ अन्न बिन सब लोग मरने लगे तब राजा ने अपना सर्वस बेच बेच सबको खिलाया। जद देस नगर धन गया औ निर्धन हो राजा रहा, तद एक दिन सॉझ समैं यह तो कुटुंब सहित भूखा बैठी थी, कि इसमें विस्वामित्र ने आय इनका सप्त देखने को यह वचन कहा—महाराज, मुझे धन दीजे औ कन्यादान का फल लीजे। इस बचन के सुनतेही जो कुछ घर मे था सो ला दिया। पुनि ऋषि ने कहा-महाराज, मेरा काम इतने मे न होगा। फिर राजा ने दास दासी बेर्च धन ला दिया औ धन जन गॅवाय निर्धन निर्जन हो स्त्री पुत्र को ले रही। पुनि ऋषि ने कहा कि धर्ममूर्त्त, इतने धन से मेरा काम न सरा, अब मैं किसके पास जाय मॉगूँँ। मुझे तो संसार में तुझसे अधिक धनवान धर्मात्मा दानी कोई नहीं दृष्टि आता, हाँ एक सुपच नाम चंडाल मायापात्र है, कहो तो उससे जो धन मॉगूँ, पर इसमे भी लाज आती है कि ऐसे दानी राजा को जॉच उससे क्या जाचूँ। महाराज, इतनी बात के सुनतेही राजा हरिचंद विस्वामित्र को साथ ले उस चंडाल के घर गये औ इन्होंने विससे कहा कि भाई, तू हमें एक बरस के लिये गहने धर औ इनका मनोरथ पूरा कर। सुपच बोला―

कैसे टहल हमारी कुरिहौ। राजस तामस मन ते हरि हौ॥
तुम नृप महा तेज बल धारी। नीच टहल है खरी हमारी॥

महाराज, हमारे तो यही काम है कि स्मशान मे जाय चौकी दे औ जो मृतक आवे उससे कर ले। पुनि हमारे घर बार की