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चौकसी करे। तुमसे यह हो सके तो मैं रुपये दूँ औ तुम्हें बंधव रक्खू। राजा ने कहा― अच्छा मै बरष भर तुम्हारी सेवा करूँँगा, तुम इन्हे रुपये दो। महाराज, इतना बचन राजा के मुख से निकलतेही सुपच ने विस्वामित्र को रुपये गिन दिये, वह ले अपने घर गया औ राजा वहॉ रह उसकी सेवा करने लगा। कितने एक दिन पीछे कालबस हो राजा हरिचंद का पुत्र रुहितास मर गया। उस मृतक को ले रानी मरघट में गई और जों चिता बनाय अग्नि संसकार करने लगी तो ही राजा ने आय कर माँगा।

रानी बिलख कहै दुख पाय। देखौ समझ हिये तुम राय

यह तुम्हारा पुत्र रुहितास है औ कर देने को मेरे पास और तो कुछ नहीं एक यह चीर है जो पहरे खड़ी हूँ। राजा ने कहा―मेरा इसमें कुछ बस नहीं, मै स्वामी के कार्य पर खड़ा हूँ, जो स्वामी का काम न करूँँ तो मेरा सत जाय। महाराज, इस बात के सुनतेही रानी ने चीर उतारने को जो ऑचल पर हाथ डाला तो तीनो लोक कॉप उठे। वोही भगवान ने राजा रानी का सत देख पहले एक बिमान भेज दिया औ पीछे से आय दरसन दे तीनो का उद्धार किया। महाराज, जब विधाता ने रुहितास को जिवाय, राजा रानी को पुत्र सहित बिमान पर बैठाय बैकुंठ जाने की आज्ञा की, तब राजा हरिचंद ने हाथ जोड़ भगवान से कहा कि हे दीनबंधु पतितपावन दीनदयाल, मैं सुपच बिना बैकुण्ठधाम में कैसे जा करूँ विश्राम। इतना बचन सुन औ राजा के मन का अभिप्राय जान, श्री भक्तहितकारी करुनासिन्धु हरि ने पुरी समेत सुपच को भी राजा रानी कुँवर के साथ तारा।

हाँ हरिसचंद अमर पद पायौ। ह्मॉ जुगान जुग जस चलि आयौ॥