पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४०३

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महाराज, यह प्रसंग जरासंध को सुनाय श्रीकृष्णचंदजी ने कहा कि महाराज, और सुनिये कि गतिदेव*ने ऐसा तप किया कि अड़तालीस दिन बिन पानी रहा औ जब जल पीने बैठा, तिसी समय कोई प्यासा आया, इसने वह नीर आप न पी उस तृषावंत को पिलाया, उस जलदान से उसने मुक्ति पाई। पुनि राजा बलि ने अति दान किया तो पाताल का राज लिया औ अब तक उसका जस चला आता है। फिर देखिये कि उहालक मुनि छठे महीने अन्न खाते थे, एक समै खाती बिरियॉ उनके ह्याँ कोई अतिथि आय', उन्होने अपना भोजन आप न खाय भूखे को। खिलाया औ उस क्षुधाही में मरे। निदान अन्नदान करने से बैकुण्ठ को गये चढ़कर बिमान।

पुनि एक समय सब देवताओं को साथ ले राजा इन्द्र ने जाये दधीच से कहा कि महाराज, हम वृत्रासुर के हाथ से अब बच नहीं सकते, जौ आप अपना अस्थि हमे दीजे तो उसके हाथ से बचें, नहीं तो बचना कठिन है। क्योकि वह बिन तुम्हारे हाड़ के आयुध किसी भॉति न मारा जायगा। महाराज, इतनी बात के सुनतेही दधीच ने शरीर गाय से चटवाय, जॉघ का हाढ़ के निकाल दिया। देवताओं ने ले उसे अस्थि का बज्र बनाया औ दधीच ने प्रान गँवाय बैकुण्ठधाम पाया।

ऐसे दाता भये अपार। तिन कौ जस गावत संसार॥

राजा, यों कह श्रीकृष्णचंदजी ने जरासन्ध से कहा कि महाराज, जैसे आगे और जुग मे धर्मात्मा दानी राजा हो गये हैं जैसे


*(क) में रातिदेव है पर वह अशुद्ध है।