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अब इस काल में तुम हो। जो आगे उन्होंने जाचको की अभिलाषा पूरी की, तों तुम अब हमारी आस पुजाओ। कहा है―

जाचक कहा न मॉगई, दाता कहा न देय।
गृह सुत सुन्दर लोभ नहि, तन सिर दे जस लेय॥

इतना बचन प्रभु के मुख से निकलतेही जरासंध बोला कि जाचक कौ दाता की पीर नही होती तौ भी दानी धीर अपनी प्रकृत नहीं छोड़ता, इसमें सुख पाथे कै दुख। देखो हरि ने कपट रूप कर बावन बन राजा बलि के पास जाय तीन पैंड पृथ्वी माँगी, उस समैं शुक्र ने बलि को चिताया, तौ भी राजा ने अपना प्रन न छोड़ा।

देह सभेत महो तिन दुई। ताकी जग में कीरति भई॥
जाचक विष्णु कहा जस लीनौं। सर्बसु लै तौऊ हठ कीनौं॥

इससे तुम पहले अपना नाम भेद कहो तद जो तुम मांगोगे सो मैं दूँगा, मैं मिथ्या नहीं भाषता। श्रीकृष्णचंद बोले कि राजा, हम क्षत्री हैं, बासुदेव मेरा नाम है, तुम भली भॉति हमें जानते हो औ ये दोनों अर्जुन भीम हमारे फुफेरे भाई हैं। हम युद्ध करने को तुम्हारे पास आए हैं, हमसे युद्ध कीजे, हम यही तुमसे माँगने आए हैं और कुछ नहीं मॉगते।

महाराज, यह बात श्रीकृष्णचंदजी से सुनि जरासन्ध हँसकर बोला कि मैं तुझसे क्या लडू तू मेरे सोंहीं से भाग चुका है औ अर्जुन से भी न लडूंंगा, क्योकि यह विदर्भ देस गया था करके नारी का भेष। रहा भीमसेन, कहो तो इससे लडू, यह मेरी समान का है, इससे लड़ने में मुझे कुछ लाज नहीं।

पहले तुम सब भोजन करौ। पाछै मल्ल अखारे लरौ।