पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४०५

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भोजन दै नृप बाहर आयौ। भीमसेन तहॉ बोल पठायौ॥
अपनी गदा ताहि तिन दई। गदा दूसरी आपुन लई॥
जहॉ सभामंडल बन्यौ, बैठे जाय मुरारि।
जरासंध अरु भीम तहँ, भये ठाढ़ इक बारि॥
टोपा सीस काछनी काछे। बने रूप नटुवा के आछें॥

महाराज, जिस समै दोनो बीर अखाड़े मे खम ठोक, गदा तान, धज पलट, झूमकर सनमुख आए, उस काल ऐसे जनाए कि मानो दो मतंग मतवाले उठ धाए। आगे जरासंध ने भीमसेन से कहा कि पहले गदा तू चला क्योकि तू ब्राह्मण को भेष ले मेरी पौरि पर आया था, इससे मै पहले प्रहार तुझपर न करूँँगा। यह बात सुन भीमसेन बोले कि राजा हमसे तुमसे धर्मयुद्ध है, इसमे यह ज्ञान ने चाहिये, जिसका जी चाहे सो पहले शस्त्र करे। महाराज, उन दोनो बीरो ने परस्पर ये बाते कर एक साथ ही गदा चलाई औ युद्ध करने लगे।

ताकत घात आप आपनी। चोट करत बॉई दाहनी॥
अंग बचाय उछरि पग धरे। झरपहिं गदा गदा सो लरे॥
खटपट चोट गदा पट कारी। लागत शब्द कुलाहल भारी॥

इतनी कथा सुनाय श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इसी भाँति वे दोनों बली दिन भर तो धर्मयुद्ध करते औ सॉझ को घर आय एक साथ भोजन कर विश्राम। ऐसे नित लड़ते लड़ते सत्ताईस दिन भए तब एक दिबस उन दोनो के लड़ने के समैं श्रीकृष्णचंदजी ने मन ही मन विचारा कि यह यो न मारा जायगा, क्योकि जब यह जन्मा था तब दो फॉक हो जन्मा था, उस समैं जरा राक्षसी ने आय जरासंध का मुँँह और नाक मूँदी,