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तब दोनो फॉक मिल गई। यह समाचार सुनि उसके पिता वृहद्रथ ने जोतिषियो को बुलाय कै पूछा, कि कहो इस लड़के का नाम क्या होगा औ कैसा होगा। ज्योतिषियो ने कहा कि महाराज, इसका नाम जरासंध हुआ औ यह बड़ा प्रतापी औ अजर अमर होगा। जब तक इसकी संधि न फटेगी तब तक यह किसी से न मारा जायगा, इतना कह जोतिषी बिदा हो चले गए। महाराज, यह बात श्रीकृष्णजी ने मन मे सोच औ अपना बल दे भीमसेन को तिनका चीर सैन से जताया कि इसे इस रीति से चीर डालो। प्रभु के चितातेही भीमसेन ने जरासंघ को पकड़कर दे मारा औ एक जॉघ पर पॉव दे दूसरा पॉव हाथ से पकड़ यों चीर डाला कि जैसे कोई दातन चीर डाले। जरासंध के मरतेही सुर नर गंधर्व ढोल दमामे भेर बजाय बजाय, फूल बरसाय-बरसाय, जैजैकार करने लगे औ दुख दंद जाय सारे नगर में आनंद हो गया। उसी बिरियॉ जरासंध की नारी रोती पीटती आ श्रीकृष्णचंदजी के सनमुख खड़ी हो हाथ जोड़ बोली कि धन्य है धन्य है नाथ तुम्हें जो ऐसा काम किया कि जिसने सरबस दिया, तुमने उसका प्रान लिया। जो जन तुम्हे सुत वित औ समर्पै देह, उससे तुम करते हो ऐसा ही नेह। कपट रूप कर छल बल कियौ। जगत आय तुम यह जस लियौ।

महाराज, जरासंध की रानी ने जब करुना कर करुनिधान के आगे हाथ जोड़ विनती कर यो कहा, तब प्रभु ने दुयाल हो पहले जरासंध की क्रिया की, पीछे उसके सुत सहदेव को बुलाय राजतिलक दे सिंहासन पर बिठाय के कहा कि पुत्र, नीति सहित राज कीजो औ ऋषि, मुनि, गौ, ब्राह्मन, प्रजा की रक्षा।

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