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चौहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, राजपाट पर बैठाय समझाय श्रीकृष्णचंदजी ने सहदेव से कहा कि राजा, अब तुम जाय उन राजाओ को ले आओ जिन्हें तुम्हारे पिता ने पहाड़ की कंदरा मे मूद रक्खा है। इतना बचन प्रभु के मुख से सुनतेही जरासंध का पुत्र सहदेव बहुत अच्छा कर कंदरा के निकट जाय, उसके मुख से सिला उठाय, आठ सौ बीस सहस्र राजाओ को निकाल हरि के सनमुख ले आया। आतेही हथकड़ियॉ बेड़ियाँ पहने, गले मे सांकल लोहे की डाले, नख केस बढ़ाये, तनछीन, मनमलीन, मैले भेष सब राजा प्रभु के सनमुख पांति पांति खड़े हो हाथ जोड़ बिनती कर बोले― हे कृपासिधु, दीनबंधु, आपने भले समे आय हमारी सुध ली, नहीं तो सब मर चुके थे। तुम्हारा दरसन पाया, हमारे जी में जी आया, पिछला दुख सब गॅवाया।

महाराज, इस बात के सुनतेही कृपासागर श्रीकृष्णचंद जी ने जो उनपर दृष्ट की, तो बात की बात मे सहदेव उनको ले जाय हथकड़ी बेड़ी कड़ी कटव्प्रय, क्षौर करवाय, न्हिलवाय, धुलवाय, षट रस भोजन खिलाय, वस्त्र आमूषन पहराय, अस्त्र शस्त्र बँधवाय, पुनि हरि के सोही लिवाय लाया। उस काल श्रीकृष्णचंदजी ने उन्हे चतुभुर्ज हो संख चक्र गदा पद्म धारन कर दरसन दिया। प्रभु का स्वरूप भूप देखतेही हाथ जोड़ बोले― नाथ, तुम संसार के कठिन बंधन से जीव को छुड़ाते हो, तुम्हे जरासंध की बंध से हमें छुड़ाना क्या कठिन था। जैसे आपने कृपा कर हमें इस