पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३६७)


सब से बड़ा साध बनाय दिया। जिसने दूध दही माखन घर घर चुराय खाया, उसी का जस सबने मिल गया। बाट घाट में जिनने लिया दान, विसी का ह्यॉ हुआ सनमान। परनारी से जिसने छल बल कर भोग किया, सब ने मता कर उसी को पहले तिलक दिया। ब्रज में से इंद्र की पूजा जिसने उठाई औ पर्वत की पूजा ठहराई, पुनि पूजा की सब सामग्री गिर के निकट लिवाय ले जाय मिस कर आपही खाई तो भी उसे लाज न आई। जिसकी जाति पाँति औ माता पिता कुल धर्म का नहीं ठिकाना, तिसीको अलख अविनासी कर सबने माना।

इतनी कथा सुनाय श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इसी भाँति से कालबस होय राजा सिसुपाल अनेक अनेक बुरी बाते श्रीकृष्णचंदजी को कहता था औ श्रीकृष्णचंदजी सभा के बीच सिहासन पर बैठे सुन सुन एक एक बात पर एक एक लकीर खैंचते थे। इस बीच भीष्म, कर्न, द्रोन औ बड़े बड़े राजा हरिनिदा सुन अति क्रोध कर बोले कि अरे मूर्ख, तू सभा में बैठा हमारे सनसुख प्रभु की निदा करता है, रे चंडाल, चुप रह नही अभी पछाड़ मार डालते हैं। महाराज, यह कह शस्त्र ले सब राजा सिसु पाले के मारने को उठ धाए। उस समय श्रीकृष्णचंद आनंदकद ने सबको रोककर कहा कि तुम इस पर शस्त्र मत करो, खड़े खड़े देखो, यह आपसे अप ही मारा जाता है। मै इसके सौ अपराध सहूँगा, क्योकि मैने वचन हारा है। सौ से बढ़ती न सहूँगा, इसलिए मै रेखा काढ़ता जाता हूँ।

महाराज, इतनी बात के सुनतेही सब ने हाथ जोड़ श्रीकृष्णुचंद से पूछा कि कृपानाथ, इसका क्या भेद है जो आप इसके