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चक्र को आज्ञा दी, उसने झट सिसुपाल का सिर काट डाला। उसके धड़ से जो जोति निकली सो एक बार तो आकाश को धाई, फिर आय सबके देखते श्रीकृष्णचंद के मुख में समाई। यह चरित्र देख सुर नर मुनि जैजैकार करने लगे औ पुष्प बरसावने। उस काल श्रीमुरारि भक्तहितकारी ने उसे तीसरी मुक्ति दी औ उसकी क्रिया की।

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि महाराज, तीसरी मुक्ति प्रभु ने किस भाँति दी सो मुझे समझायके कहिये। शुकदेवजी बोले कि राजा, एक बार यह हरनकस्यप हुँआ तब प्रभु ने नृसिंह अवतार ले तारा। दूसरी बेर रावन भया तो हरि ने रामावतार ले इसका उद्धार किया। अब तीसरी चिरियॉ यह है इसीसे तीसरी मुक्ति भई। इतना सुन राजा ने मुनि से कहा कि महाराज, अब आगे कथा कहिए। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, यज्ञ के हो चुकतेही राजा युधिष्ठिर ने सब राजाओ को स्त्री सहित बागे पहराय ब्राह्मनों को अनगिनत दान दिया। देने का काम यज्ञ में राजा दुर्योधन को था तिसने द्वेष कर एक की ठौर अनेक दिये, उसमें उसका जस हुआ तो भी वह प्रसन्न न हुआ।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, यज्ञ के पूर्ण होतेही श्रीकृष्णजी राजा युधिष्ठिर से बिदा हो सब सेना लें कुटु बसहित, हस्तिनापुर से चले चले द्वारकापुरी पधारे। प्रभु के पहुँचतेही घर घर मंगलाचार होने लगा औ सारे नगर में आनंद हो गया।