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छिहत्तरवाँ अध्याय

राजा परीक्षिल बोले कि महाराज, राजसूय यज्ञ होने से सब कोई प्रसन्न हुए, एक दुर्योधन अप्रसन्न हुआ। इसका कारन क्या है, सो तुम मुझे समझायकै कहो जो मेरे मन का भ्रम जाय। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, तुम्हारे पितामह बड़े ज्ञानी थे, जिन्होंने यज्ञ मे जिसे जैसा देखा तिसे तैसा काम दिया। भीम को भोजन करवाने का अधिकारी किया, पूजा पर सहदेव को रक्खा , धन लाने को नकुल रहे, सेवा करने पर अर्जुन ठहरे, श्रीकृष्णचंदजी ने पॉव धोने औ जूठी पत्तल उठाने का काम लिया, दुर्योधन को धन बाँटने का कार्य दिया और सब जितने राजा थे तिन्होने एक एक काज बॉट लिया। महाराज, सब तो निष्कपट यज्ञ की टहल करते थे, पर एक राजा दुर्योधन ही कपट सहित काम करता था, इससे वह एक की ठौर अनेक उठाता था, निज मन मे यह बात ठानके कि इनका भंडार टूटे तो अप्रतिष्ठा होय, पर भगवत कृपा से अप्रतिष्ठा न हो और जस होता था, इस लिये वह अप्रसन्न था और वह यह भी न जानता था कि मेरे हाथ में चक्र है एक रुपया दूंगा तो चार इक्टठे होगे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, अब आगे कथा सुनिये। श्रीकृष्णचंद के पधारते ही राजा युधिष्ठिर ने सब राजाओं को खिलाय पिलाय, पहराय, अति शिष्टाचार कर बिदा किया। वे दल साज साज अपने अपने देस को सिधारे। आगे राजा युधिष्ठिर पांडव औ कौरवो को ले गंगास्नान को बाजे गाजे से गए। तीर पर जाय दंडवत कर रज लगाय आचमन कर