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स्त्री सहित नीर मे पैठे, उनके साथ सब ने स्नान किया। पुनि न्हाय धोय, सन्ध्या पूजन से निचिन्त होय वस्त्र आभूषन पहन सब को साथ लिये राजा युधिष्ठिर कहॉ आते हैं, कि जहाँ मय दैत्य ने मन्दिर अति सुन्दर सुवर्न के रतन जदित बनाए थे। महाराज, वहाँ जाय राजा युधिष्ठिर सिहासन पर विराजे, उस काल गन्धर्व गुन गाते थे, चारन बंदीजन जस बखानते थे, सभा के बीच पातर नृत्य करती थीं, घर बाहर में मंगली लोग गाय बजाय मंगलाचार करते थे और राजा युधिष्ठिर की सभा इन्द्र की सी सभा हो रही थी। इस बीच राजा युधिष्ठिर के अपने के समाचार पाय, राजा दुर्योधन भी कपट स्नेह किये वहाँ मिलने को बड़ी धूम धाम से आया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, वहॉ भय ने चौक के बीच ऐसा काम किया था कि जो कोई जाता था तिसे थल मे जल का भ्रम होता था औ जल में थल का। महाराज, जो राजा दुर्योधन मंदिर में पैठा तों उसे थल देख जल का भ्रम हुआ, उसने वस्त्र समेट उठाय लिये। पुनि आगे बढ़ जल देख उसे थले का धोखा हुआ, जो पॉव बढ़ाया तो विसके कपड़े भींगे। यह चरित्र देख,सब सभा के लोग खिलखिल उठे। राजा युधिष्ठिर ने हँसी को रोक मुँह फेर लिया। महाराज सबके हँस पड़तेही राजा दुर्योधन अति लज्जित हो महा क्रोध कर उलटा फिर गया। सभा में बैठ कहने लगा कि कृष्ण का बल पाय युधिष्ठिर को अति अभिमान हुआ है। आज सभा मे बैठ मेरी हॉसी की, इसका पलटा मैं लूं औ उसका गर्व तोडू तो मेरा नाम दुर्योधन, नहीं तो नहीं।