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सतहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जिस समैं श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी हस्तिनापुर में थे, तिसी समय सालव नाम दैत्य सिसु पाल का साथी जो रुक्मिनी के ब्याह में श्रीकृष्णचंदजी के हाथ की मार खाय भागा था सो मन ही मन इतना कह लगा महादेव जी की तपस्या करने कि अब मै अपना बैर जदुबंसियों से लूंगा।

इंर्द्री जीत सबै बस कीनी। भूख प्यास सब ऋतु सह लीनी॥
ऐसी बिधि तप लाग्यौ करन। सुमिरै महादेव के चरन॥
नित उठ मूठी रेत लै खाय। करै कठिन तप शिव मन लाय॥
बरष एक ऐसी बिधि गयौ। तबही महादेव बर दयौ॥

कि आज से तू अजर अमर हुआ औ एक रथ माया को तुझे भय दैत्य बना देगा, तू जहॉ जाने चाहेगा वह तुझे तहॉ ले जायगा बिमान की भॉति, त्रिलोकी में उसे मेरे बर से सब ठौर जाने की सामर्थ होगी।

महाराज, सदाशिवजी ने जो बर दिया तो एक रथ आय इसके सनमुख खड़ा हुआ। यह शिवजी को प्रनाम कर रथ पर चढ़ द्वारका पुरी को धर धमका। वहॉ जाय नगरनिवासियो को अनेक अनेक भॉति की पीड़ा उपजाने लगा। कभी अग्नि बरसाता था, कभी जल। कभी बृक्ष उखाड़ नगर पर फैंकता था, कभी पहाड़। उसके डर से सब नगर निवासी अति भयमान हो भाग राजा उग्रसेन के पास जो पुकारे कि महाराज की दुहाई दैत्य ने आय नगर में अति धूम मचाई, जो इसी भॉति उपाध करेगा तो कोई