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जीता न रहैगा। महाराज, इतनी बात के सुनतेही उग्रसेन ने प्रद्युन्न जी औ संबू को बुलायके कहा कि देखो हरि का पीछा ताक यह असुर आया है प्रजी को दुख देने, तुम इसका कुछ उपाय करो। राजा की आज्ञा पाय प्रद्युन्नजी सब कटक ले रथ पर बैठ, नगर के बाहर लड़ने को जा उपस्थित हुए औ संबू को भयातुर देख बोले कि तुम किसी बात की चिंता मत करो मैं हरि प्रताप से इस असुर को बात की बात में मार लेता हूँ। इतना वचन कह प्रद्युम्नजी सेना ले शस्त्र पकड़ जो उसके सनमुख हुए, तो उसने ऐसी माया की कि दिन की महा अँँधेरी रात हो गई। प्रद्युम्नजी ने वोही तेजवान बान चलाय यों महा अँधकार को दूर किया कि जो सूरज का तेज कुहासे को दूर करै। पुनि कई एक बान इन्होने ऐसे मारे कि उसका रथ अस्तव्यस्त हो गया औ वह घबराकर कभी भाग जाता था, कभी आय अनेक अनेक राक्षसी माया उपजाय उपजाय लड़ता था औ प्रभु की प्रजा को अति दुख देता था।

इतनी कथा सुनाथ श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, दोनो ओर से महायुद्ध होताही था कि इस बीच एका एकी आय, सालव दैत्य के मंत्री दुबिद* ने प्रद्युम्नजी की छाती मे एक गदा ऐसी मारी कि ये मूर्छा खाय गिरे। इनके गिरतेही वह किलकारी मारके पुकारा कि मैंने श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न को मारा। महाराज, यादव तो राक्षसो से महायुद्ध कर रहे थे, उसी समै प्रद्युम्नजी को मूर्छित देख दारुक सारथी को बेटा रथ में डाल रन से ले भागा औ नगर में ले आया। चैतन्य होते ही प्रद्युम्नजी ने अति क्रोध कर सूत से कहा―


* १ (ख) में द्दुमत् है।