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ऐसो नाहि उचित हो तोहि। जानि अचेत भजावै मोहि॥
रन तजकै तू ल्यायौ धाम। यह तो नहि सूरकौ काम॥
यदुकुल में ऐसौ नहि कोय। तजकै खेत जो भाग्यो होय॥

क्या मैंने कहीं मुझे भागते देखा था, जो तू आज मुझे रन से भगाय लाया। यह बात जो सुनेगा सो मेरी हाँसी औ निंदा करेगा। तैंने यह काम भला न किया जो बिन काम कलंक का टीका लगा दिया। महाराज, इतनी बात के सुनते ही सारथी रथ से उतर सनमुख खड़ा हो हाथ जोड़ सिर नाय बोला कि हे प्रभु, तुम सब नीति जानते हो, ऐसा संसार में कोई धर्म नहीं जिसे तुम नहीं जानते, कहा है―

रथी सूर जो घायल परै। ताकौ सारथि लै नीकरै॥
जौ सारथी परै खा घाय। ताहि बचाय रथ लै जाय॥
लागी प्रबल गदा अति भारी। मूर्छित ह्वै सुध देह बिसारी॥
तब हौ रन ते लै नीसन्यौ। स्वामिद्रोह अपजस ते डन्यौ॥
घरी एक लीनौ विश्राम। अब चलकर कीजै संग्राम॥
धर्म नीति तुमते जानिये। जग उपहास न मन आनिये॥
अब तुम सबही कौं बध करिहौ। मायामय दानव की हरिहौ॥

महाराज, ऐसे कह, सूत प्रद्युम्नजी को जल के निकट ले गया। वहॉ जाय उन्होने मुख हाथ पाँव धोय, सावधान होय, कवच टोप पहन, धनुष बान सँभाल सारथी से कहा―भला जो। भया सो भया पर अब तू मुझे वहॉ ले चल, जहॉ दुबिद जदुबंसियों से युद्ध कर रहा है। बात के सुनतेही सारथी बात के बात में रथ वहॉ ले गया, जहॉ वह लड़ रहा था। जाते ही इन्होने ललकारकर कहा कि तू इधर उधर क्या लड़ता है ओ मेरे सन-