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मुख हो जो तुझे सिसुपाल के पास भेजूँ। यह वचन सुनतेही वह जो प्रद्युम्नजी पर आय टूटा, तो कई एक बान मार इन्होंने उसे मार गिराया औ संबू ने भी असुरदल काट काट समुद्र में घाटा।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब असुरदल से युद्ध करते करते द्वारका में सब जदुबंसियों को सत्ताइस दिन हुए, तब अंतरजामी श्रीकृष्णचंदजी ने हस्तिनापुर में बैठे बैठे द्वारका की दसा देख, राजा युधिष्ठिर से कहा कि महाराज, मैने रात्र स्वप्न में देखा कि द्वारका मे महा उपद्रव हो रहा है औ सब जदुबंसी अति दुखी हैं, इससे अब आप आज्ञा दो तो हम द्वारका को प्रस्थान करैं। यह बात सुन राजा युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर कहा- जो प्रभु की इच्छा । इतना बचन राजा युधिष्ठिर के मुख मे निकलतेही श्रीकृष्ण बलराम सबसे विदा हो, जो पुर के बाहर निकले तो क्या देखते हैं कि बॉई ओर एक हिरनी दौड़ी चली जाती है औ सोही स्वान खड़ा सिर झाड़ता है। यह अपशकुन देख हरि ने बलरामजी से कहा कि भाई, तुम सब को साथ ले पीछे आओ में आगे चलता हूँ। राजा, भाई से यो कह श्रीकृष्णचंदजी आगे जाय रनभूसि में क्या देखते हैं, कि असुर जदुबंसियों को चारों ओर से बड़ी मार मार रहे है की वे निपट घबराय शस्त्र चलाय रहे है। यह चरित्र देख हरि जों वहॉ खड़े हो कुछ भावित हुए, तो पीछे से बलदेवजी भी जा पहुँचे। उस काल श्रीकृष्णजी ने बलरामजी से कहा कि भाई, तुम जाय नगर औ प्रजा की रक्षा करो मैं इन्हें मार चला आता हूँ। प्रभु की आज्ञा पाय बलदेवजी तो पुरी में पधारे औ आप हरि वहॉ रन में गए, जहॉ प्रद्युम्नजी सालव से युद्ध कर रहे थे।