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यदुपति के आते ही शंख धुनि हुई औ सबने जाना कि श्रीकृष्णचंद आए। महाराज, प्रभु के जातेही सालव अपना रथ उड़ाय आकाश में लेगया औ वहॉ से अग्नि सम बान बरसाने लगा। उस समय श्रीकृष्णचंदजी ने सोलह बान गिनकर ऐसे मारे कि उसका रथ औ सारथी उड़ गया, औ वह लड़खड़ाय नीचे गिरा। गिरतेही संभलकर एक बान उसने हरि की बाम भुजा में मारा औ यो पुकारा कि रे कृष्ण, खड़ा रह मैं युद्ध कर तेरा बल देखता हूँ, तैने तो संखासुर, भौमासुर औ सिसुपाल आदि बड़े बड़े बलवान छल बल कर मारे हैं, पर अब मेरे हाथ से तेरा वचना कठिन है।

मोसो तोहि पन्यो अब काम। कपट छॉड़ि कीजो संग्राम॥
बानासुर भौमासुर बरी। तेरौ मग देखत है हरी॥
पठऊँ तहॉ बहुरि नहि अआवै। भाजे तू न बड़ाई पावै॥

यह बात सुन जो श्रीकृष्णजी ने इतना कहा कि रे मूरख अभिमानी कायर कूर, जो है क्षत्री गंभीर धीर सूर के पहले किसी से बड़ा बोल नहीं बोलते, तो उसने दौड़कर हरि पर एक गदा अति क्रोध कर चलाई सो प्रभु ने सहज सुभाव ही काट गिराई। पुनि श्रीकृष्णचंदजी ने उसे एक गदा मारी वह गदा खाय माया की ओट मे जाय दो घड़ी मूर्छित रहा। फिर कपटरूप बनाय प्रभु के सनमुख आये बोला―

माय तिहारी देवकी, पठ्यौ मोहि अकुलाय॥
रिपु सालव बसुदेव कौ, पकरे लीये जाय॥

महाराज, वह असुर इतना बचन सुनाय वहाँ से जाय माया का वसुदेव बनाय बॉध लाय श्रीकृष्णचंद के सोही आय