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बोला―रे कृष्ण, देख मैं तेरे पिता को बॉध लाया औ अब इसका सिर काट सब जदुबंसियो को मार समुद्र में पाटूंंगा, पीछे तुझे मार इकछत राज करूँँगा। महाराज, ऐसे कह उसने माया के बसुदेव को सिर पछाड़ के श्रीकृष्णजी के देखते काट डाला औ बरछी के फल पर रग्व साको दिखाया। यह माया का चरित्र देख पहले तो प्रभु को मूर्छा आई, पुनि देह सँभाल मनहीं मन कहने लगे कि यह क्योकर हुआ जो यह वसुदेवजी को बलरामजी के रहते द्वारका से पकड़ लाया। क्या यह उनसे भी बली है जो उनके सनमुख से वसुदेवजी को ले निकल आया।

महाराज, इसी भॉति की अनेक अनेक बाते कितनी एक बेर लग आसुरी माया में आय प्रभु ने की औ महा भावित रहे। निदान ध्यान कर हरि ने देखा तो सब आसुरी माया की छाया का भेद पाया, तब तो श्रीकृष्णचंदजी ने उसे ललकारा। प्रभु की ललकार सुन वह आकाश को गया औ लगा वहॉ से प्रभु पर शस्त्र चलाने। इस बीच श्रीकृष्णजी ने कई एक बार ऐसे मारे कि वह रथ समेत समुद्र मे गिरी। गिरतेही सँभल गदा ले प्रभु पर झपटा। तब तो हरि ने उसे अति क्रोध कर सुदरसन चक्र से मार गिराया, ऐसे कि जैसे सुरपति ने वृत्रासुर को मार गिराया था। महाराज, उसके गिरतेही उसके सीस की मनि निकल भूमि पर गिरी औ जोति श्रीकृष्णचंद के भुख में समाई।