पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अठहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, अब मै सिसुपाल के भाई वक्रदंत और बिदुरथ की कथा कहता हूँ कि जैसे वे मारे गए। जबसे सिसुपाल मारा गया तबसे वे दोनो श्रीकृष्णचंदजी से अपने भाई का पलटा लेने का विचार किया करते थे। निदान सालव औ दुविद के मरतेही अपना सब कटक ले द्वारका पुरी पर चढ़ि आए औ चारो ओर से घेर लगे अनेक अनेक प्रकार के जन्त्र औ शस्त्र चलाने।

पज्यौ नगर में खरभर भारी। सुनि पुकार रथ चड़े मुरारी॥

आगे श्रीकृष्णचंद नगर के बाहर जाय वहाँ खड़े हुए, कि जहाँ अति कोप किये शस्त्र लिये वे दोनों असुर लड़ने को उपस्थित थे। प्रभु को देखतेही वक्रदंत महा अभिमान कर बोला कि रे कृष्ण, तू पहले अपना शस्त्र चलाय ले पीछे मैं तुझे मारूँँगा। इतनी बात मैंने इसलिये तुझे कही कि मरते समय तेरे मन में यह अभिलाषा न रहै कि मैने वक्रदंत पर शस्त्र न किया। तूने तो बड़े बड़े बली मारे हैं पर अब मेरे हाथ से जीता न बचेगा। महाराज, ऐसे कितने एक दुष्ट वचन कह वक्रदंत ने प्रभु पर गदा चलाई, सो हरि ने सहज ही काट गिराई। पुनि दूसरी गदा ले हरि से महा युद्ध करने लगा, तब तो भगवान ने उसे मार गिराया औ विसका जी निकल प्रभु के मुख में समाया ।

आगे वक्रदंत को मरना देख बिदूरथ जों युद्ध करने को चढ़ आया, तो ही श्रीकृष्णजी ने सुदरसन चक्र चलाया। उसने विदू-