पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४२६

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यह है गुनहीन, कृपन औ अति अभिमानी। पुनि चाहिये निर्लोभी औ परमारथी, यह है महालोभी औ आप स्वारथी। ज्ञानहीन अविवेकी को यह ब्यासगादी फबती नहीं, इसे मारें तो क्या, पर यहॉ से निकाल दिया चाहिये। इस बात के सुनतेही सौनकादि बड़े बड़े मुनि ऋषि अति विनती कर बोले कि महाराज, तुम हो र्बीर धीर सकल धर्म नीति के जान, यह है कायर अधीर अविवेकी अभिमानी अज्ञान। इसका अपराध क्षमा कीजे क्यौकि यह व्यासगादी पर बैठा है औ ब्रह्मा ने यज्ञ कर्म के लिये इसे यहॉ स्थापित किया है।

आसन गर्व मूढ़ मन धन्यौ। उठि प्रनाम तुमकौ नहि कयौ॥
यही नाथ याकौ अपराध। परी चूक है तौ यह साध॥
सूतहि मारे पातक होय। जग मे भलौ कहै नहि कोय॥
निर्फल बचन न जाय तिहारौ। यह तुम निज मन माहि बिचारौ॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही बलरामजी ने एक कुश उठाय, सहज सुभाय सूत के मारा, उसके लगते ही वह मर गया। यह चरित्र देख सौनकादि ऋषि मुनि हाहाकार कर अति उदास ही बोले कि महाराज, जो बात होनी थी सो तो हुई पर अब कृपा कर हमारी चिन्ता मेटिये। प्रभु बोले― तुम्हे किस बात की इच्छा है सो कहो हम पूरी करैं। मुनियों ने कहा― महाराज, हमारे यज्ञ करने मे किसी बात का विध्न न होय यही हमारी वासना है सो पूरी कीजै औ जगत मे जस लीजे। इतना बचन मुनियो के मुख से निकलतेही अंतरजामी बलरामजी ने सून के पुत्र को बुलाय, व्यासगादी पर बैठाय के कहा― यह अपने बाप से अधिक वक्ता होगा औ मैने इसे अमरपद दे चिरंजीव किया, अब तुम निर्चिताई से यज्ञ करो।

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