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अस्सीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अब मैं सुदामा की कथा कहती हूँ कि जैसे वह प्रभु के पास गया औ उसका दरिद्र कटा, सो तुम मन दे सुनौ। दक्षिन दिसा की ओर है एक द्रविड़ देश, तहॉ विप्र औ बलिक बसते थे नरेस। जिनके राज मै घर घर होता था भजन सुमिरन औ, हरि का ध्यान, पुनि सव करते थे तर्प यज्ञ धर्म दान और साध संत गौ ब्राह्मन का सनमान।

ऐसे बसे सबै तिहि ठौर। हरि बिन कछू न जाने और॥

तिसी देस में सुदामा नाम ब्राह्मन श्रीकृष्णचंद को गुरुभाई, अ दीन तन छ न महा दरिद्री ऐसा कि जिसके घर पै न घास, में खाने को कुछ पास रहता था। एक दिन सुदामा की स्त्री दरिद्र से अति घबराय महा दुख पाय पति के निकट जाय भय खाय डरतो कॉपती बोली कि महाराज, अब इस दरिद्र के हाथ से महा दुख पाते हैं, जो आप इसे खोया चाहिये तो मै एक उपाय बताऊँ। ब्राह्मन बोला, सो क्या, कहाँ―तुम्हारे परम मित्र त्रिलोकी नाथ द्वारकावासी श्रीकृष्णचंद आनंदकंद हैं, जो उनके पास जाओ तो यह जाय, क्यौंकि वे अर्थ धर्म काम मोक्ष के दाता है।

महाराज, जैव ब्राह्मनी ने ऐसे समझायकर कहा, तब सुदामा बोला कि हे प्रिये विन दिये श्रीकृष्णचंद भी किमीको कुछ नहीं देते। मैं भली भॉति से जानता हूँ कि जन्म भर मैंने किसीको कभी कुछ नहीं दिया, बिन दिये कहॉ से पाऊँगा। हॉ तेरे कहे। से जाऊँगा, तो श्रीकृष्णजी के दरसन कर आऊँगा। इस बात के सुन-