पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४३१

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तेही ब्राह्मनी ने एक अति पुराने धौले वस्त्र मे थोड़े से चावल बांध ला दिये प्रभू की भेट के लिये और डोर लोटा औ लाठी आगे धरी। तब तो सुदामा डोर लोटा कॉधे पर डाल चॉवल कीं पोटली कॉख मे दबाय, लाठी हाथ में ले गनेस को मनाय, श्रीकृष्णचंदजी का ध्यान कर द्वारकापुरी को पधारा।

महाराज, बाट ही में चलते चलते सुदामा मन ही मन कहने लगा कि भला धन तो मेरी प्रारब्ध में नहीं पर द्वारका जाने से श्रीकृष्णचंद आनंदकंद का दरसन तो करूँँगा। इस भॉति से सोच विचार करता करता सुदामा तीन पहर के बीच द्वारकापुरी में पहुँँचा, तो क्या देखता है कि नगर के चारो ओर समुद्र है औ बीच में पुरी, वह पुरी कैसी है कि जिसके चहुँ ओर बन उपवन फूल फल रहे है, तड़ाग वापी इंदारो पर रहट परोहे चल रहे हैं, ठौर ठौर गायो के यूथ के यूथ चर रहे है, तिनके साथ साथ ग्वाल बाल न्यारे ही कुतूहल करते है।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सुदामा बन उपबन की शोभा निरख पुरी के भीतर जाय देखे तो कंचन के मनिमय मंदिर महा सुंदर जगमगाय रहे हैं. ठॉव ठाँव अयाइयो में यदुवंसी इंद्र की सी सभा किये बैठे है। हाट वाट चौहटों में नाना प्रकार की वस्तु बिक रही है, घर घर जिधर तिधर गान दान हरिभजन औ प्रभु को जस हो रहा है औ सारे नगर निवासी महा आनंद में है। महाराज, यह चरित्र देखता देखता औ श्रीकृष्णचंद का मंदिर पूछता पूछता सुदामा जी प्रभु की सिहपौर पर खड़ा हुआ। इसने किसी से डरते डरते पूछा कि श्रीकृष्णचंदजी कहॉ विराजते है? उसने कहा कि देवता, आप मंदिर