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भीतर जाओ सनमुख ही श्रीकृष्णचंदजी रत्न सिंहासन पर बैठे हैं।

महाराज, इतना बचन सुन सुदामा जी भीतर गया, तो देखते ही श्रीकृष्णचंद सिहासन से उतर, आगू बढ़ भेट कर अति प्यार से हाथ पकड़ उसे ले गए। पुनि सिहासन पर बिठाय पॉव धोय चरनामृत लिया, आगे चंदन चरच, अक्षत लगाय, पुष्प चढ़ाय, धूप दीप कर प्रभु ने सुदामा की पूजा की।

इतनौ करिकै जोरे हाथ! कुशल क्षेम पूछत यदुनाथ॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज, यह चरित्र देख श्रीरुक्मिनीजी समेत आठो पटरानियाँ औ सोलह सहस्र आठ सौ रानियॉ और सब यदुवंसी जो उस समय वहॉ थे, मन ही मन यो कहने लगे कि इस दरिद्री, दुर्बल, मलीन, वस्त्रहीन, ब्राह्मन ने ऐसा क्या अगले जन्म पुन्य किया था जो त्रिलोकीनाथ ने इसे इतना माना। महाराज, अंतरजामी श्रीकृष्णचंद उस काल सब के मन की बात समझ उनका संदेह मिटाने को, सुदामा से गुरु के घर की बाते करने लगे कि भाई तुम्हें वह सुध है जो एक दिन गुरुपत्नी ने हमै तुम्हे ईंधन लेने भेजा था और जब बन से ईंधन ले गटड़ियॉ बॉध सिर पर धर धर को चले, तब आँधी और मेह आया औ लगा मूसलाधार बरसने, जल थल चारो ओर भर गया, हम तुम भींगकर महादुख पाय जाड़ा खाय रात भर एक वृक्ष के नीचे रहे। भोर ही गुरुदेव बन में ढूंढने आये औ अति करुना कर असीस दे हमें तुम्हें अपने साथ घर लिवाय लाए।

इतना कह पुनि श्रीकृष्णचंदजी बोले कि भाई, जब से तुम