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एक्यासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अंतरजामी श्रीकृष्णजी ने सुदामा की बात सुन औ उसके अनेक मनोरथ समझ हँसकर कहा कि भाई, भाभी ने हमारे लिये क्या भेट भेजी है सो देते क्यो नहीं, कॉख में किस लिये दबाय रहे हो। महाराज, यह बचन सुन सुदामा तो सकुचाय मुरझाय रहा औ प्रभु ने झट चावल की पोटली उसकी कॉख से निकाल ली। पुनि खोल उसमे से अति रुचि कर दो मुट्ठी चावल खाए औ जो तीसरी मुट्ठी भरी, तो श्रीरुक्मिनीजी ने हरि का हाथ पकड़ा औ कहा कि महाराज, आपने दो लोक तो इसे दिये अब अपने रहने को भी कोई ठौर रक्खोगे कै नहीं। यह सो ब्राह्मन सुसील कुलीन अति बैरागी महात्याग सा दृष्ट आता है, क्योकि इसे विभौ पाने से कुछ हर्प न हुआ। इससे मैने जाना कि लाभ हानि समान जानते है, इन्हे पाने को हर्प न जाने का शोक।

इतनी बात रुक्मिनीजी के मुख से निकलते ही श्रीकृष्णचंदजी ने कहा कि हे प्रिये, यह मेरा परम मित्र है इसके गुन मै कहॉ तक बखानूँँ। सदा सर्वदा मेरे स्नेह में मगन रहता है और उसके आगे संसार के सुख को तृनवत समझता है।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, ऐसे अनेक अनेक प्रकार की बाते कर प्रभु रुक्मिनीजी को समझाय, सुदामा को संदिर में लिवाय ले गये। आगे षटरस भोजन करवाय, पान खिलाय हरि ने सुदामा को फेन सी सेज