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के मित्र सुदामा के हैं। यह बात सुन जो सुदामा कुछ कहने को हुआ तों भीतर से देख उसकी ब्राह्मनी, अच्छे वस्त्र आभूषण पहने नख सिख से सिंगार किए, पान खाए, सुगंध लगाए, सखियो को साथ लिए पति के निकट आई।

पायन पर पाटम्बर डारे। हाथ जोड़ ये बचन उचारे॥
ठाढ़े क्यो मन्दिर पर धारो। मन सो सोच करो तुम न्यारौ॥
तुम पाछे विश्वकर्मा आए। तिन मन्दिर पल मॉझ धनाए॥

महाराज, इतनी बात ब्रह्मानी के मुख से सुन सुदामाजी मंदिर में गए औ अति विभौ देख महा उदास भए। ब्राह्मनी बोली― स्वामी, धन पाय लोग प्रसन्न होते हैं, तुम उदास हुए इसका कारन क्या है सो कृपा कर कहिए जो मेरे मनका संदेह जाय। सुदामा बोला कि हे प्रिये, यह माया बड़ी ठगनी है, इसने सारे संसार को ठगा है, ठगती है औ ठगेगी, सो प्रभु ने मुझे दी औ मेरे प्रेम की प्रतीत न की। मैंने उनसे कब माँगी थी जो उन्होने मुझे दी, इसीसे मेरा चित्त उदास है। ब्राह्मनी बोली― स्वामी, तुमने तो श्रीकृष्णचंदजी से कुछ न मॉगा था, पर वे अंतरजामी घट घट की जानते हैं। मेरे मन में धन की बासना थी सो प्रभु ने पूरी की, तुम अपने मन में और कुछ मत समझो। इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इस प्रसंग को जो सदा सुने सुनावेगा सो जन जगत में आय दुख कभी न पावेगा औ अंत काल बैकुंठ धाम जावेगा।