पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
तिरासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जैसे द्रौपदी औ श्रीकृष्णचंद जी की स्त्रियो में परस्पर बाते हुई सो मैं प्रसंग कहता हूँ, तुम सुनो। एक दिन कौरव औ पांडवों की स्त्रियॉ श्रीकृष्णचंद की नारियो के पास बैठी थीं औ प्रभु के चरित्र औ गुन गाती थी, इसमें कुछ बात जो चली तो द्रौपदी ने श्रीरुक्मिनीजी से कहा कि हे सुंदरि, कह, तूने श्रीकृष्णचंदजी को कैसे पाया। श्रीरुक्मिनीजी बोली―

सुनौ द्रौपदी तुम चितलाय। जैसे प्रभु ने किये उपाय॥

मेरे पिता का तो मनोरथ था कि मैं अपनी कन्या श्रीकृष्णचंद को दूँ औ भाई ने राजा सिसुयाल को देने का मन किया, वह बारात ले ब्याहन को आया औ श्रीकृष्णचंद को मैंने ब्राह्मन भेजके बुलाया। ब्याह के दिन मैं जो गौरि की पूजा कर घर को चली, तो श्रीकृष्णचंदजी ने सब असुरदल के बीच से मुझे उठाय ले रथ में बैठाय अपनी बाट ली । तिस पीछे समाचार पाय सब असुरदल प्रभु पर आय टूटा, सो हरि ने सहज ही मार भगाया। पुनि मुझे ले द्वारका पधारे, वहॉ जाते ही राजा उग्रसेन सूरसेन बसुदेवजी ने वेद की बिधि से, श्रीकृष्णचंदजी के साथ मेरा ब्याह किया। विवाह के समाचार पाय मेरे पिता ने बहुत सा यौतुक भिजवाय दिया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, जैसे द्रौपदीजी ने श्रीरुक्मिनीजी से पूछा और उन्होने तैसे ही द्रौपदीजी ने सतभामा, जामवंती, कालिदी, भद्रा, सत्या, मित्रबिदा, लक्षमना आदि श्रीकृष्णचंद की सोलह सहस्र आठ सौ पदरानियों से पूछा औ एक एक ने समाचार अपने अपने विवाह का ब्यौरे समेत कहा।

________