पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पचासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, द्वारका पुरी के बीच एक दिन श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी जों वसुदेवजी के पास गए तों इन दोनों भाइयो को देख यह बात मन में विचार उठ खड़े हुए, कि कुरक्षेत्र में नारदजी ने कहा था कि श्रीकृष्णचंद जगत के करता हैं औ हाथ जोड़ बोले कि हे प्रभु, अलख अगोचर अविनासी, सदा सेवती है तुम्हैं कमला भई दासीं। तुम हो सब देवो के देव, कोई नहीं जानती तुम्हारा भेव। तुम्हारी ही जोती है चॉद सूरज पृथ्वी आकाश मे, तुम्हीं करते हो सब ठौर प्रकाश। तुम्हारी माया है प्रबल, उसने सारे संसार को भुला रक्खा है। त्रिलोकी में सुर नर मुनि ऐसा कोई नहीं जो उसके हाथ से बचा हो। महाराज, इतना कह पुनि बसुदेवजी बोले कि नाथ,

कोउ न भेद तुम्हारौ जाने। वेदन मॉझ अगाध बखाने॥
शत्रु मित्र कोऊ न तिहारौ। पुत्र पिता न सहोदर प्यारौ॥
पृथ्वी भार हरन अवतारौ। जन के हेत भेष बहु धारौ॥

महाराज, ऐसे कह बसुदेवजी बोले कि हे करुनासिन्धु दीनबंधु, जैसे आपने अनेक अनेक पतितो को तारा, वैसे कृपा कर मेरी भी निस्तार कीजे, जो भवसागर के पार हो आपके गुन गाऊँ। श्रीकृष्णचंद बोले कि हे पिता, तुम ज्ञानी होय पुत्रो की बड़ाई क्यौं करते हो, टुक आप हो मन मे विचारो कि भगवत की लीला अपरंपार है। उसका पार किसी ने आज तक नहीं पाया, देखो वह―