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घट घट माहिं जोति ह्वै रहै। ताही सो जग निर्गुन कहै॥
आपहि सिरजै आपहि हरै। रहै मिल्यौ बॉध्यौ नहीं परै॥
भू आकाश वायु जल जोति। पंच तत्व ते देह जो होति॥
प्रभु की शक्ति सबनि में रहै। वेद माहि विधि ऐसे कहै॥

महाराज, इतनी बात श्रीकृष्णचंदजी के मुख से सुनते ही, बसुदेवजी मोह बस होय चुप कर हरि की मुख देख रहे। तब प्रभु वहॉ से चल माता के निकट गए तो पुत्र का मुख देखते ही देवकीजी बोलीं―हे कृष्णचंद आनंदकंद, एक दुख मुझे जब न तब साले है। प्रभु बोले―सो क्या। देवकीजी ने कहा कि पुत्र तुम्हारे छह बड़े भाई जो कंस ने मार डाले हैं उनको दुख मेरे मुन से नहीं जाता।

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बात के कहते श्रीकृष्णचंदजी इतना कह पातालपुरी को गए कि माता तुम अब मत कुढ़ो मै अपने भाइयो को अभी जाय ले आता हूँ। प्रभु के जाते ही समाचार पाय राजा बलि आय, अति धूमधाम से पाटंबर के पॉवड़े डाल निज मंदिर में लिवाय ले गया। आगे सिंहासन पर बिठाय राजा बलि ने चंदन, अक्षत, पुष्प चढ़ाय, धूप, दीप, नैवेद्य धर श्रीकृष्णचंद की पूजा की। पुनि सनमुख खड़ा हो हाथ जोड़ अति स्तुति कर बोला कि महाराज, आप का आना ह्यॉ कैसे हुआ। हरि बोले कि राजा, सतयुग मे मरीचि ऋषि नामक एक ऋषि बड़े ब्रह्मचारी, ज्ञानी, सत्यवादी औ हरिभक्त थे। उसकी स्त्री का नाम उरना, विसके छह बेटे। एक दिन वे छहो भाई तरुन अवस्था में प्रजापति के सनमुख जा हँसे। उनको हँसता देख प्रजापति ने महीकोप कर यह श्राप दिया कि तुम जाय अव-