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छिआसीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, जैसे द्वारका से अर्जुन श्रीकृष्णचंदजी की बहन सुभद्रा को हर ले गये औ जैसे श्रीकृष्णचंद मिथला में जाय रहे, तैसे मैं कथा कहता हूँ तुम मन लगाय सुनो। देवकी की बेटी श्रीकृष्णजी से छोटी जिसका नाम सुभद्रा, जब व्याहन जोग हुई तब बसुदेवजी ने कितने एक जदुबंसी औ श्रीकृष्ण बलरामजी को बुलायके कहा कि अब कन्या ब्याहन जोग भई कहो किसे दे। बलरामजी बोले कि कहा है, ब्याह बैर प्रीति समान से कीजे। एक बात मेरे मन में आई है कि यह कन्या दुर्योधन को दीजै, तो जगत में जस औ बड़ाई लीजै। श्रीकृष्णचंद ने कहा― मेरे विचार में आता है जो अर्जुन को लड़की दे तो संसार मे जस ले। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज बलरामजी के कहने पर तो कोई कुछ न बोला पर श्रीकृष्णचंदजी के मुख से बात निकलते ही सब पुकार उठे कि अर्जुन को कन्या देना अति उत्तम है। इस बात के सुनते ही बलरामजी बुरा मान वहॉ से उठ गए औ विनका बुरा मानना देख सब लोग चुप रहे। आगे ये समाचार पाय अर्जुन संन्यासी को भेष बनाय, दंड कमंडल ले द्वारका में जाय, एक भली सी ठौर देख मृगछाला बिछाय आसन मार बैठा।

चार मास बरषा भरि रह्यौ। कोहू मरम न ताकौ लह्यौ॥
अतिथ जान सब सेवन लागे। विष्णु हेतु तसो अनुरागे॥
वाकौ भेद कृष्ण सब जान्यौ। काहू सो तिन नाहिं बखान्यौ॥