पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४०७)

महाराज, एक दिन बलदेवजी भी जिमाने अर्जुन को साथ कर घर लिवाय ले गए। जो अर्जुन भोजन करने बैठे तो चंद्रवदनी मृगलोचनी सुभद्राजी दृष्ट आई। देखते ही इधर तो अर्जुन मोहित हो सच की दीठ बचाय फिर फिर देखने लगे औ मन ही मन यह विचार करने कि देखिये विधाता कब जन्मपत्री की विधि मिलावे। औ इधर सुभद्राजी इनके रूप की छटा देख रीझ मन मन यों कहती थीं कि―

है कोउ नृपति नाहि संन्यासी। का कारन यह भयो उदासी॥

महाराज, इतना कह उधर तो सुभद्राज घर में जाय पति के मिलन की चिंता करने लगीं औ इधर भोजन कर अर्जुन अपने आसन पर आय, प्रिया के मिलन क अनेक अनेक प्रकार की भावना करने लगे। इसमें कितने दिन पीछे एक समैं शिवरात्र के दिन सब पुरबासी क्या स्त्री क्या पुरुष नगर के बाहर शिवपूजन को गए। तहॉ सुभद्राजी अपनी सखी सहेलियों समेत गई। उनके जाने का समाचार पाय अर्जुन भी रथ पर चढ़ धनुष बान ले वहॉ जाय उपस्थित हुए।

महाराज, जों शिवपूजन कर सखियो को साथ ले सुभद्राजी फिरीं, तो देखते ही सोच संकोच तज अर्जुन ने हाथ पकड़ उठाय सुभद्रा को रथ में बैठाय अपनी बाट ली।

सनिकै राम कोप अति कन्यो। हुल मूसल लै काधे धन्यो।
राते नयन रक्त से करे। घन सम गाजे बोल उच्चरे॥
अबही जाय प्रलै मैं करिहौं। भुव उठाय कर माथे धरिहौं॥
मेरी बहन सुभद्रा प्यारी। ताकौं कैसे हरै भिखारी॥
अच हौं जहाँ संन्यासी पाऊँ। तिनकौ सब कुल खोज मिटाऊँ॥

२९