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महाराज, बलरामजी तो महा क्रोध में बक झक रहे ही थे, कि इस बात के समाचार पाय प्रद्युन्न अनरुद्ध संबू औ बड़े बड़े यादव बलदेवजी के सनमुख आय हाथ जोड़ जोड़ बोले कि महाराज, हमें आज्ञा होय तो जाय शत्रु को पकड़ लावैं।

इतनी कथा सुनाय श्री शुकदेवजी बोले कि महाराज, जिस समय बलरामजी सब जदुबसियो को साथ ले अर्जुन के पीछे चलने को उपस्थित हुए, उस काल श्रीकृष्णचंदजी ने जाय बलदेव जी को सुभद्रा हरन को सब भेद समझाय औ अति विनती कर कहा कि भाई, अर्जुन एक तो हमारी फूफी का बेटा औं दूसरे परम मित्र। उसने जाने अनजाने समझे बिन समझे यह कर्म किया तो किया, पर हमें उससे लड़ना किसी भाँति उचित नहीं। यह धर्म विरुद्ध औ लोक विरुद्ध है, इस बात को जो सुनेगा सो कहेगा, कि जदुबंसियों की प्रीति है बालू की सी भीत। इतनी बात के सुनते ही बलरामजी सिर धुन झुँँझला कर बोले कि भाई, यह तुम्हारा ही काम है कि आग लगाय पानी को दौड़ना। नही तो अर्जुन की क्या सामर्थ थी जो हमारी बहन को ले जाता। इतना कह मन ही मन पछताय ताव पेच खाय बलरामजी भाई का मुख देख हुल मूसल पटक बैठ रहे औ उनके साथ साथ जदुबंसी भी।

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, इधर तो श्रीकृष्णचंदजी ने सब को समझाय दुझाये रक्खा औ उधर अर्जुन ने धर जाय बेद की बिधि से सुभद्रा के साथ व्याह किया। ब्याह के समाचार पाय श्रीकृष्ण बलरामजी ने वस्त्र आभूषन दास दासी हाथी घोड़े रथ औ बहुत से रुपये एक ब्राह्मन के हाथ संकल्प कर हस्तिनापुर भेज