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दिये। आगे श्रीमुरारी भक्तहितकारी रथ पर बैठ मिथिला को चले, जहाँ सुतदेव, बहुलास, नाम एक राजा, ब्राह्मन दो भक्त थे। महाराज, प्रभु के चलते ही नारद वामदेव व्यास अत्रि परशुराम आदि कितने एक मुनि आन मिले औ श्रीकृष्णचंदजी के साथ हो लिए। पुनि जिस देश में हो प्रभु जाते थे, तहॉ के राजा आगृ आय पूज पूज भेट धरते जाते थे। निदान चले चले कितने एक दिनों में प्रभु वहॉ पधारे। हरि के आने के समाचार पाय वे दोनो जैसे बैठे थे तैसे ही भेट ले उठ धाए औ श्रीकृष्णचंद के पास आए। प्रभु का दरसन करते ही दोनों भेंट धर दंडवत कर हाथ जोड़ सनमुख खड़े हो अति बिनती कर बोले कि हे कृपासिंधु दीनबधु, आपने बड़ी दया की जो हमसे पतितों को दरसन दे पावन किया औ जन्म मरन का निबेड़ा चुका दिया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव जी बोले कि महाराज, अंतरजामी श्रीकृष्णचंद उन दोनों भक्तो के सनकी भक्ति देखि दो सरूप धारन कर दोनों के घर जाय रहे। उन्होने मन मानता सब रावचाव किया औ हरि ने कितने दिन वहाँ ठहर उन्हें अधिक सुख दिया। आगे प्रभु उनके मन का मनोरथ पूरा कर ज्ञान दृढ़ाय जब द्वारका को चले, तब ऋषि मुनि पंथ से बिदा हुए औ हरि द्वारका में जा बिराजे।