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नारदजी, जब तुम सेत दीप में भगवत दरसन को गए थे तभी प्रसंग चला था, इससे तुमने नहीं सुना।

इतनी बात सुन नारदजी ने पूछा― महाराज, वहाँ क्या प्रसंग चला था सो कृपाकर कहिये। नारायन बोले― सुन नारद, जद मुनियों ने यह प्रश्न किया तद सनंदन मुनि कहने लगे कि सुनो जिस समैं महाप्रलय होय चौदह ब्रह्मांड जलाकार हो जाते हैं, उस समैं पूरन ब्रह्य अकेले सोते रहते हैं। जब भगवान को सृष्टि करने की इच्छा होती है, तब उनके स्वास से वेद निकल हाथ जोड़ स्तुति करते हैं। ऐसे कि जैसे कोई राजा अपने स्थान पर सोता हो औ बंदीजन भोर ही उसका जस गाय गाय उसीको। जगावे, इस लिये कि चैतन्य हो शीघ्र अपने कार्य को करे।

इतना प्रसंग कह नरनारायन बोले कि सुन नारद, प्रभु के मुख से निकल वेद यह कहते हैं कि हे नाथ, बेग चैतन्य हो सृष्टि रचो औ जीवो के मन से अपनी माया दूर करो, क्योकि वे तुम्हारे रूप को पहचाने। माया तुम्हारी प्रबल है, यह सब जीवो को अज्ञान कर रखती है, जो इससे छूटे तो जीव को तुम्हारे समझने का ज्ञान हो। हे नाथ, तुम बिन इसे कोई बस नही कर सकता, जिसके हृदै में ज्ञान रूप हो तुम बिराजते हो, सोई इस माया को जीतता है, नहीं तो किसकी सामर्थ है जो माया के हाथ से बचे। तुम सबके करता हो, सब जीव तुम्ही से उत्पन्न हो तुम्हीं मे समाते हैं, ऐसे कि जैसे पृथ्वी से अनेक वस्तु हो पुंंनि पृथ्वी में मिल जाती हैं। कोई किसी देवता की पूजा स्तुति करे, पर वह तुम्हारी ही पूजा स्तुति होती है। ऐसे कि जैसे कोई कंचन के अनेक आभरन बनाय अनेक नाम धरे पर वह कंचन ही है, तिसी भॉति तुम्हारे अनेक रूप हैं और ज्ञान कर देखिये तो कोई