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जाते ही ऑख खोलकर देखा कि एक बड़ा लंबा चौड़ा ऊँँचा कंचन का मनिमय मंदिर अति सुंदर है, तहाँ शेषजी के सीस पर रतन जटित सिंहासन धरा है। तिसपर स्यामघन रूप, सुंदर सरूप, चंदबदन, कॅवल नयन, किरीट कुंडल पहने, पीतबसन औढ़ै, पीतांबर काछे, बनमाला मुक्तमाल डाले आप प्रभु मोहनी मूरति बिराजे हैं औ ब्रह्मा रुद्र इंद्र आदि सब देवता सनमुख खड़े स्तुति करते हैं। महाराज, ऐसा सरूप देख अर्जुन औ श्रीकृष्णचंदजी ने प्रभु के सोहीं जाय, दंडवत कर हाथ जोड़ अपने जाने का सब क़ारन कहा। बात के सुनते ही प्रभु ने ब्राह्मन के बालक सब मँगाय दीने औ अर्जुन ने देख भाल प्रसन्न हो लीने। तब प्रभु बोले―

तुम दोऊ मेरी कला जु आहि। हरि अर्जुन देखौ चित चाहि॥
भार उतारन भुव पर गए। साधु संत कौ बहु सुख दए॥
असुर दैत्य तुम सब सँहारे। सुर नर मुनि के काज सँवारे॥
मेरे अंस जु तुम में द्वै हैं। पूरन काम तुम्हारे ह्वै हैं॥

इतना कह भगवान ने अर्जुन औ श्रीकृष्णजी को बिदा किया। ये बालक ले पुरी में आए, द्विज के पुत्र द्विज ने पाए, घर घर आनंद मंगल बधाए। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज,

जे यह कथा सुने धर ध्यान। तिनके पुत्र होयँ कल्यान॥